लक्ष्मण रेखा
लक्ष्मण रेखा
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मेरे संस्कारो की
लक्ष्मण रेखा नहीं
छोड़ती मुझे कहीं भी
कि उसके अंदर रहना
मेरी नियति नही,
मेरी मजबूरी नही,
मेरी खुद की चुनी
हुई राह है..।
क्यूँ भटकती मैं
उससे बाहर
हाँ, हर पल है
वह मेरे अंदर
मैंने खुद ही
खींचीं है यह रेखा
तुम कहते हो जिसे
लक्ष्मण रेखा!
यही तो है हमारी स्वस्थ परम्पराओं की धरोहर जो किसी को मर्यादापुरुषोत्तम राम बना देती है तो किसी को युग तपस्विनी सीता. मन तो उड़ता पंछी है, लेकिन ये लक्ष्मण रेखाएं ही हैं जो इसकी उड़ान को सही दिशा प्रदान करती हैं. "मैंने खुद ही खीची है यह रेखा, तुम कहते हो जिसे लक्ष्मण रेखा" में जीवन का अद्भुत सौन्दर्य बोध परिलक्षित होता है. आप कैसे लिख लेती हैं इतनी सुन्दर-सुन्दर कवितायें! इन कविताओं के लिए ढेरों शुभकामनायें!
ReplyDeleteधन्यवाद मनोज जी....:)
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