Monday, December 29, 2014

समंदर

     समंदर
ंंंंंंंंंंंंंंंं
कुछ रिश्ते ही तो
समंदर बन पाते हैं,
वरना नदियों सी बस
बहती जाती है जिंदगानी...)
सीमा श्रीवास्तव...
और ये रही मेरी पूरी रचना  जिसकी अंतिम चार पंक्तियो को मैने ऊपर लिखा है 
"मेरा और तुम्हारा रिश्ता
कई रिश्तो का संगम है
तभी तो यह बन चुका है समंदर,
हरदम कितनी मौजें उठती है इसमें,
कितनी लहरें आती हैं,जाती हैं....
कोई गोते लगा कर तो देखे
कितने अमूल्य धरोहर
दबा रखे हैं हमने
सच बडी मुश्किल से
कुछ रिश्ते समंदर
बन पाते हैं..
वरना नदियों सी
बहती जाती है
जिंदगानी...."
सीमा श्रीवास्तव

अब आप बताए..कि ऊपर की चार पंक्तियॉ..को ही लिख कर छोड दूं या पूरी रचना को लिखना जरूरी है...

Friday, December 26, 2014

हकीकत

मैं चाहती थी लिखना ,

रेत पर तुम्हारे और मेरे नाम के 

पहले अक्षर। …… 

तुमने कहा सब हसेंगे हम पर ,

मैंने चाहा लहरो के साथ 

कुछ देर खेलना ,

तुम हाथ खींच बहुत 

दूर ले गए ,

कहा लहरों का कोई 

भरोसा नहीं । 

 मुझे पता है कि तुम्हें

कितनी फिक्र है मेरी

सच ,तुम हकीकत से जुडे होते हो

इस हद तक  कि मैं चाह के  भी 

 रोमानी हो नहीं पाती....

सीमा श्रीवास्तव...



Thursday, December 25, 2014

कुछ बुरे लोग

 कुछ बुरे लोग
ंंंंंंंंंंंंंंंंं

सुनो दोस्त..

कुछ लोग चाह्ते ही हैं कि

इतनी गंदगी बिखेर दें कि

हमारा चलना  मुश्किल हो जाए

इतने गड्ढे खोद दें कि

 सँभलते सँभलते हम गिर ही जाए! 

ऐसे लोग बिलकुल भी नहीं शर्माते 

ये खुद ही कुछ ऐसा कर बैठते हैं  

कि हमें बंद कर लेनी पड़ती है 

अपनी आँखे! 

ये गन्दगी के पोषक होते है, 


अरे!ये  तो चाह्ते ही हैं  उलझा के रखना सबको

तबाही मचाने,आग लगाने और गर्द उडाने में 

ये लेते हैं मजे, ये चाह्ते हैं कि तुम भी आकर समेटो

इनके फैलाए कीचड को और गंदे करो अपने हाथ !

सीमा श्रीवास्तव

Monday, December 22, 2014

रात


जब रात शांति ओढ के 

खडी होती है ,


तब  मन का सन्नाटा 


रात की बांहे पकड़ के 


जाने क्या -क्या बतियाता है !


दिन भर की सुनाता है !


और  आँखे मन की राह 


तकते-  तकते कब 


पलकें बंद कर लेती है 


पता भी नहीं लगता ।


जाने कितने सपने

आते जाते रहते है
रात  भर......!!

- सीमा श्रीवास्तव





Tuesday, December 16, 2014

कमल

       कमल
************

अपनी तहजीब को अपने पास

सम्भाले रखना ऐ दिल 

कि तेरे पसंद की यहाँ 

हर एक बात ना होगी ,

बहुत कुछ देख कर भी तू 

बंद रखना  ये जुबां 

कि तेरी पसंद से मिलती यहाँ 

हर राह  ना होगी!!

 जरदोस्त हैं जो वो  देखें  सकेगे ना

  जमाल इस  दिल का 

कि तू लगा दे इस दिल को

खुदा की बंदगी में!!

ये ना सोच जरूरत क्या है

यहॉ भला तेरी

कि कमल खिलते हैं औ

मुस्कुराते हैं कीचड में भी!!


(जरदोस्त -  धन को सबसे अधिक प्रिय समझनेवाला

जमाल- खूबसूरती )

सीमा श्रीवास्तव...

Sunday, December 14, 2014

भजन




प्रभू   के काते धागे हैं हम(आत्मा)

सोचो क्या बनना है..?

किस रंग में रंगना है तुमको

किस तन में बसना  है..


प्रभू के काते धागे हैं हम 

सोचो क्या बनना है..?


समझ नहीं पाओगे गर तो

उलझ उलझ रह जाओगे

फँस  के जीवन के जंगल में

उलझन  ही तुम  पाओगे 


बाती सा तुम समझो खुद को 

प्रभू नेह में जाओ डूब 

जलो साँझ के दीए भांति 

हो जाए आलोकित सब 


हो जाए आलोकित सब !!


- सीमा श्रीवास्तव 









Friday, December 12, 2014

छुप्पम छुपाई

कभी कभी कोई चीज
अचानक खो जाती है..
फिर आपसे यूँ  टकराती है

जैसे छुपम छुपाई
में छुपा कोई
कोई बच्चा अचानक

 टकरा जाये हमसे

और हस दे खिलखिला के ...
सीमा...

Wednesday, December 10, 2014

परफेक्ट लेडी




सुनो बहन,

परफेक्ट लेडी  बनने के

जोश  में ,मत हो परेशान

एक पैर पर खडी होकर

मत करो कमजोर

अपनी हड्डियॉ....

मत ज्यादा उलझाओ

इस दिमाग को,

कि  थोडी शांति,

थोडा सुकून,एक लम्बी सांस

और थोडा विश्राम कितना जरूरी है,

ये पता है मुझे ।

थकने  से पहले बैठो जरा

टूटने से पहले खुद से

जुडो जरा....


देखो,

सूरज तो सांझ तक  ढल जाता है,

पर तुम्हें तो चांद से भी

करनी होती है गुफ्त्गू..

बिन तुम्हारे घर का  चूल्हा

उदास लगता है....एक,

जूठा ग्लास भी इधर उधर

भटकता है..तो,

मैंने जो कहा उसका तुम ख्याल  रखना

रोज की भागदौड   में अपना भी

ध्यान  रखना....

सीमा श्रीवास्तव...





Tuesday, December 9, 2014

बुद्धु मन

    बुद्धु मन
**************

रोज ही खुद से
पूछती हूं कई प्रश्न
रोज ही कितने
गलत जवाब पाती हूं
ओ मन, तुझे मैं
कितना समझाती हूं.
फिर भी 
हर बार तुझे बुद्धू ही पाती हूं...

सीमा श्रीवास्तव.....

Monday, December 8, 2014

खुशी और गम



कभी कभी बहुत खुशी भी

अचानक उदास कर जाती है हमें,

हॉ , खुशियों के नीचे  जब

दब जाता है ढेर सारा गम

तो वह कराह उठता है दर्द से,

एहसास दे जाता है अपने दबे होने का,

यूं भी खुशियॉ बहुत

  हल्की होती हैं

कब छू हो जाती हैं पता भी नहीं लगता

और गम भारी होने से 

दबता  चला जाता है

गहराई में दिल के अंदर

बहुत अंदर.....

सीमा श्रीवास्तव..


Sunday, December 7, 2014

गमजदा

खुदा हमें जरा सा,

छोड देता है गमजदा 

कि गुरूर कहीं किसी को ऊपर ना ले उड़े.... 

हॉ.,कोई ना कोई गम हमें

वजनी(दुख से भारी) बना देता

कि जमीं  पर हमारे   पाँव रहे जमे....!!

- सीमा  

Friday, December 5, 2014

कतरन

(1)

कुछ कतरनो को 

सहेज के रखना जरूरी था..,

कि जाने कब कहॉ  

 पैबंद  लगानी पडे...

(2)

जिंदगी कभी भी..

चुका लेती है अपनी कीमत,

हर एहसान
का
  हिसाब किताब

 कर लो  साफ !!

-  सीमा श्रीवास्तव......



Thursday, December 4, 2014

जंगल

जंगल लगातार छांटें   जा रहे हैं ,

जंगली जानवर भाग रहे हैं इधर उधर..

तरह तरह के मुखौटे और परिधान पहनकर 

पर सब में भूख ,प्यास तो वही है जानवरो जैसी । 

मीठे फल नहीं भाते उन्हें ,

सड़ाते हैं वो उसे जमीन के अंदर दबा के 

कि असर गहरा हो दिलो दिमाग पर 

फिर उसे पीकर वे नोंच डालते हैं 

अपने मुखौटे  और परिधान ,

दिखाने लगते हैं तरह तरह के करतब 

कि कितनी देर वो छुपा सकते हैं 

अपनी असलियत को ,

आखिर दम तो किसी का भी घुटता है 

परदों के पीछे ,मुखौटे के अंदर 

छोड़ो रहने दो इन्हें जानवरो  जैसा 

कि 
जंगल के निवासी को कहाँ भाते हैं बागीचे!!

-  सीमा श्रीवास्तव 

Wednesday, December 3, 2014

कविता की कहानी



सुनो समाज, 

तुम्हारे दिए किसी चोट 

या क्रिया को मै जाया नहीं करती 

कि जैसे हर चोट से ,

लोहा लेता जाता है आकार 

जब जब  पीटता  है उसे 

मजबूत लुहार ,

जैसे लेती रहती है मिट्टी

नित ,नए आकार 

जब जब उसे  रौंध

चाक पे चढाता  है  कुम्हार,

तब  क्यों होने दूं  मैं किसी भी

क्रिया को बेकार.....



कि आओ हर चोट को ओढने को

बैठी  हूं मैं (कविता) तैयार...,

चलो, कोई अफसोस नहीं  है अब

कि  बहुत कुछ रचा जा  चुका है

तुम्हारे ही  दिये प्रहार से...,



कुछ हल्के,कुछ चटक,

हर तरह के रंग बिखर गये हैं

शब्दो के संसार में......!!


- सीमा श्रीवास्तव..