Wednesday, December 3, 2014

कविता की कहानी



सुनो समाज, 

तुम्हारे दिए किसी चोट 

या क्रिया को मै जाया नहीं करती 

कि जैसे हर चोट से ,

लोहा लेता जाता है आकार 

जब जब  पीटता  है उसे 

मजबूत लुहार ,

जैसे लेती रहती है मिट्टी

नित ,नए आकार 

जब जब उसे  रौंध

चाक पे चढाता  है  कुम्हार,

तब  क्यों होने दूं  मैं किसी भी

क्रिया को बेकार.....



कि आओ हर चोट को ओढने को

बैठी  हूं मैं (कविता) तैयार...,

चलो, कोई अफसोस नहीं  है अब

कि  बहुत कुछ रचा जा  चुका है

तुम्हारे ही  दिये प्रहार से...,



कुछ हल्के,कुछ चटक,

हर तरह के रंग बिखर गये हैं

शब्दो के संसार में......!!


- सीमा श्रीवास्तव..

8 comments:

  1. जानदार ...... बेहद खुबसूरत अभिव्यक्ति
    स्नेहाशीष

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  2. दीदी आपकी प्रतिक्रिया देखकर तसल्ली हो गयी...मन को...

    ........बहुत बहुत धन्यवाद दीदी..........

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  3. Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद मोनिका जी..

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  4. हर चोट कुछ न कुछ सिखा जाती है ... कुछ न कुछ नया आकार बना जाती है ...
    बहुत खूब ...

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  5. बहुत बहुत धन्यवाद

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