आशाएँ
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कितनी बार डूबी हूँ ,
फिर खुद ही
सूरज की किरणों को पकड़
सूरज की किरणों को पकड़
निकल आई हूँ बाहर !
मेरे मन का कोना ,कोना
आशाओ से है ओत - प्रोत !
फिर भी
अपने जिस्म पे उभर आये
जख्मो को देख जब घबड़ा जाती हूँ
मै हो जाती हूँ गुमशुदा ,
अपने जिस्म पे उभर आये
जख्मो को देख जब घबड़ा जाती हूँ
मै हो जाती हूँ गुमशुदा ,
खो जाती हूँ , यादो के जंगल मे
और उलझते - उलझते
और भी जख्मी हो जाती हूँ !!
और उलझते - उलझते
और भी जख्मी हो जाती हूँ !!
- सीमा