Monday, November 28, 2016

मन का अल्पविराम

मन का अल्प  विराम
^^^^^^^^^^^^^^^^
कई बार ऐसा होता था

एक ठहराव सा आता था

पर फिर खुद ही बहने लगती थी

मन की धारा ,

हाँ, हर बार कोई ताकत

देती थी मेरा साथ

और खुशियो का सिरा

आ जाता था मेरे हाथ

मन फिर से हँसने लगता

और रम जाती  मैं

अपनी दीन दुनिया मेँ

जलने लगते थे दीप पूजा के ,

हटने लगते थे

धूल और जाले और

सज जाते थे बच्चों की

शरारतो से उजड़े सोफे और कुशन!

पहले तो मन नहीं था बैठा रहता

मुरझाया चेहरा देख के इस तरह!

ढूँढता था वो गुलाब जल ,चन्दन,

पढता था नए - नए ब्यूटी टिप्स।

अपनी ही बातों को काटता

फिर अपनी ही बातो को मानता

बढ़ता रहता था मन।

अपने बच्चो को डाँटकर
फिर उन्हें मनाता  मन

अब चुपचाप देखा करता
है उन्हें  ,
रोकता-टोकता नहीं!!

क्या ये भी मन का अल्प विराम है ?

हाँ, ये मन का अल्प विराम ही  तो है

ऐसा होता रहता है,

मन रूकता - बढ़ता रहता है ।
देखो ना .......

बच्चे अब बड़े हो चुके  हैं,
कि यूँ ही

रूकते - भागते बढती जाती है जिंदगी

यूँ ही रूठते-मनाते गुजर जाती है जिंदगी

इन अल्प विरामो से कभी  मत घबराना

कि जिंदगी का नाम है चलते जाना ।

- सीमा श्रीवास्तव

Thursday, November 10, 2016

गुड़िया


जब छोटी थी
तब रहती थी मस्त
अपने आप में।
अपनी गुडियों के मेकअप से ही
फुर्सत नहीं थी मुझे।
घंटो गुडियों को सजाती ,
निहारती , दुलारती ।

धीरे-धीरे किताबो के शब्द बढने लगे,
गणित के प्रॉब्लम्स में हम उलझने लगे।
गुडिया छूटी और अपना चेहरा सामने आया।
भगवान् की बनाई अपनी मूरत में
फेर-बदल की कोई संभावना ना थी
पर लोगों की रोज - रोज की टीका-टिप्पणी ने
इतना तो  समझा दिया कि
समाज में रहने के लिए
खुद को भी गुडिया बनाना कितना जरुरी है।

इन ब्यूटी पार्लरस की भीड़ यूँ ही नहीं है ना!
नहीं चलते आजकल बिना सँवारे हुए आईब्रोज,
नहीं चलते आजकल ग्लोरहित चेहरे।

फैशन की लचीली कमर की तरह हमें भी
लचकना पड़ता है
पुरानी तस्वीरो को फाड़कर
अपने लिए एक नया चेहरा ढूंढना पडता है और
बचपन में सजाई सवारी गई गुडिया की तरह
हमें भी गुडिया बनना पड़ता है!!
- सीमा