Sunday, November 2, 2014

परवाह

अंत भला तो सब भला
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जिसने कभी नहीं की 

उसकी परवाह ,

सिर्फ समझा जिसे

 सेविका और उठाता रहा 

उसके प्रेम से परोसे 

भोजन का आनंद 

खुद को लापरवाह रखा 

उसके दुःख ,तकलीफ से ,

उसके अरमानो  से,

उसकी पसंद, नापसंद से 

आज वही कर रहा है 

इंतजार, उसी सेविका के 

अस्पताल से लौट आने का 

खूब पछता रहा है ,

रो रहा है वह 

अंदर ही   अंदर 

बस वो तीन दिन  काफी थे ,

उसे यह मान लेने को 

कि वह स्त्री जिसे वह मात्र 

सेविका समझता रहा 

कितनी कीमती है । 

कितना ऊपर है 

उस स्त्री का अस्तित्व 

उसकी सोच की परिधि से ,

जिसे इन चालीस सालों से वह 

सेता आया है ,अपने दिमाग में !!

तो क्या इसे हम कह सकते हैं
  
कि 
अंत भला तो सब भला !!!


सीमा श्रीवास्तव 

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