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गृहणी
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गृहणी
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बहुत कुछ अनपढा ही
रह जाता है..
छूटता जाता है ....
अखबार के पन्ने ,
किताबे,कोई अच्छा आलेख अफसोस तो होता है,पर करे तो क्या करे...हम!!
कपड़ो को तह लगाते हाथ
अल्मारी पर जमे धूल
को तकती आँखे,उधर खाने
का हिसाब किताब लगाता दिमाग,सोचना ही सोचना, और करना ही करना.. है हर वक़्त, देखो ना,
चूल्हे पर चढ़े दोनों कूकर की
सीटियाँ भी हिल हिल के कह
रही हो मानो कि नारी तुम पर
है बहुत सारी जिम्मेवारी
दिन भर की। .......
सीमा श्रीवास्तव |
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