हम खुद से
कितनी उम्मीदें पाल
बैठते हैं,
कुछ देख सुन के,
कुछ अपने शौक के,
कुछ अपने स्तर के,
कुछ अपनी सहुलियत के।
रोज भगाते हैं
अपने आसपास से
मक्खियों की तरह भिनभिनाती
नकारात्मकता।
रोज छांटते हैं
निराशा के बादल।
खुश होने के बहाने
ढूंढते रहते हैं
इधर-उधर से।
इतिहास,भूगोल,गणित
सबसे लड़ते -भिड़ते
निकालते हैं
अपने लिए
सुकून भरा चाँद
और सो जाते हैं
एक राहत भरी
सुबह की खातिर।
हम रोज उलझे हुए
बालों की कंघी करते हुए
देना चाहते हैं
उन्हें एक नया विन्यास।
हम रोज बिगड़ते हैं,
हम रोज संवरते हैं।
- सीमा
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