Thursday, November 10, 2016

गुड़िया


जब छोटी थी
तब रहती थी मस्त
अपने आप में।
अपनी गुडियों के मेकअप से ही
फुर्सत नहीं थी मुझे।
घंटो गुडियों को सजाती ,
निहारती , दुलारती ।

धीरे-धीरे किताबो के शब्द बढने लगे,
गणित के प्रॉब्लम्स में हम उलझने लगे।
गुडिया छूटी और अपना चेहरा सामने आया।
भगवान् की बनाई अपनी मूरत में
फेर-बदल की कोई संभावना ना थी
पर लोगों की रोज - रोज की टीका-टिप्पणी ने
इतना तो  समझा दिया कि
समाज में रहने के लिए
खुद को भी गुडिया बनाना कितना जरुरी है।

इन ब्यूटी पार्लरस की भीड़ यूँ ही नहीं है ना!
नहीं चलते आजकल बिना सँवारे हुए आईब्रोज,
नहीं चलते आजकल ग्लोरहित चेहरे।

फैशन की लचीली कमर की तरह हमें भी
लचकना पड़ता है
पुरानी तस्वीरो को फाड़कर
अपने लिए एक नया चेहरा ढूंढना पडता है और
बचपन में सजाई सवारी गई गुडिया की तरह
हमें भी गुडिया बनना पड़ता है!!
- सीमा

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