Tuesday, July 29, 2014
बेतहाशा
बेतहाशा के क्षण
निराशा के क्षणजब लगता है
कि हम रूह होते
तो बेह्तर होता
ळोगो कि नजर
नहीं भेद्ती हमे
बारी बारी से
रूह होते तो
नहीं सोचते
सिर्फ खुद के लिये
दुआएँ करते
बाकी सारी
रूहों के लिये
जो किसी न किसी
शरीर में
दबे तरस रहे हैं
शान्ति के लिए
बेताब हैं
रूह बनने के लिए
Sunday, July 27, 2014
मुझे कुछ कहना है!
आकाश का यूँ बदला-बदला रंग क्यों है ?
आदमी का यूँ बदला-बदला ढंग क्यों है ?
जज्बातों पर हर पल इतना बंध क्यों है ?
फिज़ाओं में हर पल बारूदी गंध क्यों है ?
हाथों में निवालों के बदले संग क्यों है ?
भूख की खातिर ज़िंदगी में जंग क्यों है ?
जो जवाबदार है इन कोहपैकर सवालों के -
उनसे मुझे कुछ कहना है !
मुझे कुछ कहना है।
(संग = पत्थर, कोहपैकर = भीमकाय, विशाल.)